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मनुष्य के जीवन में पांच गुरु
- January 12, 2024
- Posted by: Ajay Kumar Pandey
- Category: 'कर्म ही पूजा है'
इंसान के जीवन में पांच गुरुओं का विशेष महत्व होता है। प्रथम गुरु जन्म देने वाला
इंसान के जीवन में पांच गुरुओं का विशेष महत्व होता है। इनमें प्रथम गुरु जन्म देने वाला, दूसरा गुरु शिक्षा देने वाला, तीसरा गुरु संस्कार देने वाला, चौथा गुरु दीक्षा देने वाला और पांचवां गुरु समाधि मरण के समय का होता है। जन्म देने वाले और शिक्षा देने वाले दो गुरु तो सभी को मिल जाते हैं, लेकिन तीन गुरु विशेष पुण्य के उदय से ही मिल पाते हैं। गुरु के चरण कमल पकड़ने के बाद मन में गुरूर नहीं होना चाहिए। मोबाइल फोन की स्पीड बढ़ाने के लिए हम बीच-बीच में उसे रिफ्रेश कर लेते हैं उसी तरह जीवन को गुरु के आशीर्वाद से रिफ्रेश कर लेना चाहिए।
आत्मा के सुख को पाने के लिए पुरुषार्थ करें। वही सुख अनंत सुखमय है, स्वाधीन है, शाश्वत है। जिसे पाने के बाद वह आपको छोड़कर नहीं जाए। जो एक बार मिल जाए और हमेशा आपके साथ रहे, वो आध्यात्मिक सुख है। जो कभी भी चला जाए, वह भौतिक सुख है। भगवान महावीर ने आत्मा के सच्चे सुख को पाने के लिए भौतिक सुखों का त्याग किया। हम भगवान के अनुयायी हैं और हमें भी उनके बताए मार्ग पर चलना चाहिए। आज नाश्वत सुख-संपत्ति के लिए सभी दौड़ रहे हैं। यह केवल अज्ञानता को दर्शाता है।
जीवन के साथ संस्कारों का घनिष्ठ सम्बन्ध है और भारतीय जीवन में संस्कारों का बड़ा महत्त्व है ।संस्कार शब्द की द्युत्पति ‘कृ’ धातु में सम उपसर्ग लगाकर की गयी है । इसका अर्थ है-शुद्धि, परिष्कार, सुधार । मन, रुचि, आचार-विचार को परिष्कृत तथा उन्नत करने का कार्य । वास्तव में संस्कृति शब्द संस्कार से बना है । इसका अर्थ है-परिमार्जित, परिकृत, सुधारा हुआ, ठीक किया हुआ । इन अर्थो में मानव में जो दोष हैं, उनका शोधन करने के लिए, उन्हें सुसंस्कृत करने के लिए ही संस्कारों का प्रावधान किया हुआ है ! संस्कारों के द्वारा मानवीय मन को एक विशिष्ट वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर निर्मल, सन्तुलित एवं सुसंस्कृत बनाया जाता है । जीवन में काम आने वाले सत्यवृत्तियों का बीजारोपण भी इन संस्कारों के समय होता है । यदि किसी बालक के सभी संस्कार ठीक रीति से समुचित वातावरण में किये जायें, तो उसका व्यक्तित्व सुविकसित होता है । संस्कार पद्धति के द्वारा उसके मनोविकारों का निराकरण कर उसकी सृजनात्मक शक्ति को बढ़ावा देता है । अत: जीवन की बहुमूल्य विशिष्टता, सम्पदा और चरित्र निर्माण का आधार संस्कार है ।
संस्कारों का महत्त्व: मानव जीवन में संस्कारों का अत्यधिक महत्त्व है । संस्कारों का सर्वाधिक महत्त्व मानवीय चित्त की शुद्धि के लिए है । संस्कारों के द्वारा ही मनुष्य का चरित्र निर्माण होता है और विचारों के अनुरूप संस्कार; क्योंकि चरित्र ही वह धुरी है, जिस पर मनुष्य का जीवन सुख, शान्ति और मान-सम्मान को प्राप्त करता है । संस्कार के द्वारा मानव चरित्र में सदगुणों का संचार होता है, दोष, दुर्गुण दूर होते हैं । मानव जीवन को जन्म से लेकर मृत्यु तक सार्थक बनाने तथा सत्य-शोधन की अभिनव व्यवस्था का नाम सरकार है । संस्कारों का मूल प्रयोजन आध्यात्मिक भी है तथा नैतिक विकास का भी है; क्योंकि मानव जीवन को अपवित्र एवं उत्कृष्ट बनाने वाले आध्यात्मिक उपचार का नाम सस्कार है ।
श्रेष्ठ संस्कारवान मानव का निर्माण ही संस्कारों का मुख्य उद्देश्य है । संस्कारों के द्वारा ही मनुष्य में शिष्टाचरण एवं सभ्य आचरण की प्रवृत्ति का विकास होता है । इस अर्थ में सर्वसाधारण के मानसिक, चारित्रिक एवं भावनात्मक विकास के लिए सर्वाग सुन्दर विधान संस्कारों का है ।
प्रत्येक मनुष्य जन्म के साथ कुछ गुण और कुछ अवगुण लेकर पैदा होता है । उस पर पूर्व जन्मों के संस्कार भी पड़ते हैं । ऐसी मान्यता हिन्दू धर्म की है । अत: आयु वृद्धि के साथ-साथ उस पर नये संस्कार भी पड़ते रहते हैं । अत: पुराने संस्कारों को प्रभावित करके उनमें परिवर्तन, परिवर्द्धन कर अनुकूल संस्कारों का निर्माण करने की प्रक्रिया सरकार कहलाती है 3. विभिन्न धार्मिक संस्कार एवं उनका स्वरूप:हमारे भारतीय धर्म के अनुसार सोलह (16) संस्कारों द्वारा व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिष्कार किया जाता है ।
जन्म से लेकर मृत्यु तक व्यक्ति के सोलह (16) संस्कारों में शामिल हैं:
गर्भाधान संस्कार, पुंसवन, सीमांतोयंत्रन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन विवाह सरकार, अंत्येष्टि ।
1. गर्भाधान संस्कार: यह बालक के जन्म के पूर्व का संस्कार है । गर्भाधान संस्कार गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने वाले नवदम्पत्तियों के लिए पारिवारिक दायित्व को संभालने हेतु पूर्व शिक्षण है । इस सरकार में यह बताया जाता है कि आने वाली जीवात्मा परमात्मा का स्वरूप एवं प्रतिनिधि है । उसे आमन्त्रित करने के लिए अपनी योग्यता, साधन और परिस्थितियों का आकलन नवदम्पत्ति कर ले । आर्यपुराष अपनी स्त्री के समीप सुसन्तान उत्पन्न करने के हेतु निश्चित उद्देश्य लेकर पवित्र भाव से जाये, जो भावी सन्तान को निर्मल बनाये ।
2. पुंसवन संस्कार: गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास के लिए गर्भिणी द्वारा सम्पन्न किया जाता है । यह तब किया जाता है, जब बालक के भौतिक स्वरूप का निर्माण प्रारम्भ हो जाता है । कुछ ऋषियों द्वारा यह संस्कार प्रत्येक गर्भधारण के पश्चात बजार करना चाहिए । पुसवन संस्कार से गर्भ पवित्र हो जाता है । इस संस्कार में गर्भिणी स्त्री के दाहिने नासिका छिद्र में वटवृक्ष की छाल का रस श्रेष्ठ सन्तान की उत्पत्ति के लिए छोड़ा जाता है । इसके पश्चात् गर्भपूजन करने के बाद परिवारजन श्रेष्ठ मन्त्रों का उच्चारण करते हैं । गर्भिणी नियमित रूप से पांच आहुतियां खीर अर्पित कर यइा कुण्ड को देती है तथा विशेष मन्त्रों का उच्चारण करती है ।
3. सीमांतोन्नयन संस्कार: यह तीसरा संस्कार है । यह छठे तथा आठवें मास में किया जाता है ।
4. जातकर्म संस्कार: जन्म के तुरन्त बाद सम्पन्न होता है । नाभि बन्धन पूर्व वेद मन्त्रों के उच्चारण के साथ यह सम्पन्न होता है ।
5. नामकरण संस्कार: शिशु कन्या है या कि पुत्र, इसका भेद न करते हुए यह संस्कार किया जाता है । इसके द्वारा शिशु की मौलिक तथा कल्याणकारी प्रवृत्तियों को जगाने हेतु यह प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है । सामान्यत: यह जन्म के दसवें दिन यज्ञ कर्म के द्वारा सम्पत्र होता था । जन्म के बाद प्रसूता का शुद्धिकरण भी हो जाता था । सभी उपस्थित व्यक्ति कलश में जल लेकर अभिषेक के द्वारा शिशु पर श्रेष्ठ संस्कारों के प्रभाव की कामना करते हैं । शिशु की कमर पर मेखला इस आशा से बांधी जाती है कि नवजात शिशु निष्ठा की दृष्टि से सदैव सजग रहे । अभिभावक शिशु की कमर पर मेखला बांधकर उसके संरक्षण के प्रति तथा उसे जीवन-भर दोष, दुर्गुणों से बचाये रखते हैं । शहद चटाकर मधुर भाषण का सैक्सर इसी में समाहित है । इसके पश्चात् शिशु को सूर्य का दर्शन कराकर उसको प्रखर एवं तेजस्वी बनाने की कामना के साथ राष्ट्र के प्राप्ति भी निष्ठावान बनाये रखने का शिक्षण दिया जाता है । इसके पश्चात् सज्जित थाली में लिखा नाम सभी को दिखाते हुए आचार्य मन्त्रोच्चारण के साथ उसके नामन की घोषणा कहते हैं । उसे चिरंजीवी, धर्मशील एवं प्रगतिशील होने का आशीर्वाद देते हैं ।
6. निष्कमण संस्कार: निष्क्रमण का तात्पर्य है: घर से बाहर निकालना । इस संस्कार में कोई वयोवृद्ध कोका बच्चे को गोदी में लेकर उसे बाहर का खुला वातावरण दिखाता है, ताकि बालक विराट ब्रह्मरूपी संसार को समझे । उसे सूर्य का दर्शन भी करवाया जाता है ।
7. अन्नप्राशन संस्कार: यह शिशु के छठे मास में किया जाता है । उसे प्रथम अन्नाहार ग्रहण करमे के बाद यह भावना की जाती है कि बालक सदैव सुसंस्कारी अत्र ग्रहण करे । सुपाच्य खीर, मधुरता का प्रतीक मधु, रनेह का प्रतीक घी, विकार नाशक पवित्र तुलसी तथा पवित्रता का प्रतीक गंगाजल का सम्मिश्रण प्रत्येक विशिष्ट मन्त्रोच्चार के द्वारा भगवान् तथा यइा के प्रसाद के रूप में बच्चे को खिलाया जाता है । सात्विक आहार ग्रहण करने से उसका समररा चिन्तन सतोगुणी बनेगा ।
8. चूड़ाकर्म: चूड़ाकर्म सरकार के साथ शिखा की तथा यज्ञोपवीत (उपनयन) के साथ सूत्र की स्थापना को भारतीय संस्कृति का आधार माना जाता है । जहां शिखा संस्कृति की गौरव पताका का प्रतीक है, वहीं सूत्र विशिष्ट संकल्पों एवं व्रतों का प्रतीक है । जन्म के पश्चात् प्रथम वर्ष के अन्त अथवा तृतीय वर्ष की समाप्ति के पूर्व यह सम्पन्न होता है । हिन्दू धर्म में यह मान्यता है कि मनुष्य कई योनियों में भटककर मानव योनि प्राप्त करता है । अत: उसके अनुपयुक्त एवं अवांछनीय संस्कारों का निष्कासन बालक के समुचित मानसिक विकास हेतु आवश्यक है । मुण्डन सदा किसी तीर्थस्थान या देवस्थान पर किया जाता है, ताकि सिर से उतारे गये बालों के साथ कुसंस्कारों का शमन हो सके । आयुर्वेद के आचार्य चरक के अनुसार-श्मश्रु तथा दाढ़ी, मूंछ व नखों को काटने के पीछे यही संस्कार है । शिखा स्थान पर बालों का गुच्छा व्यक्ति की कुप्रवृत्तियों पर अंकुश रखता है ।मुण्डन विधान में बालक के बालों को गौदुग्ध, दही में भिगोकर ब्रह्म, विष्णु महेश के प्रतीक के रूप में तीन गुच्छों में कुश तथा कलावे से बांधते हैं । इसका आशय यह है कि शुभ देव शक्तियां सदैव मस्तिष्क तन्त्र का इस्तेमाल करें । गायत्री मन्त्रोच्चार के साथ पांच आहुतियां यज्ञ में मिष्ठान्न के साथ दी जाती हैं । यज्ञशाला से बाहर मुण्डन कर बालों को गोबर में रख जमीन में गाड़ दिया जाता है । फिर मस्तिष्क पर स्वस्तिक या ओम शब्द चन्दन या रोली से लिखते हैं ।
9. कर्णवेध संस्कार: इस संस्कार का वर्तमान में कोई विशेष महत्त्व नहीं है । विद्यार्थी गुरु को प्रणाम करता है । बालक श्रेष्ठ मानव बने । बालक पट्टी या कॉपी पर लिखता है, तो उस पर अक्षत छुड़वाकर बालक को तिलक लगाकर आशीर्वाद देते हैं । बालक श्रेष्ठ लोकसेवी व नागरिक बने, यही कामना की जाती है ।
10. विद्यारम्भ संस्कार: यह आयु के पांचवें वर्ष में तब सम्पन्न कराया जाता है, जब बालक शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता है । शिक्षा मात्र शिक्षा न रहकर विद्या बने, इसीलिए गणेश व लक्ष्मी के पूजन के बाद विद्या तथा ज्ञानवर्द्धन करने वाले इस संस्कार को सरस्वती का नमन कर पूर्ण किया जाता है । शिक्षा के उपकरण दवात, कलम, कॉपी, पट्टिका को वेद मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर पूजन किया जाता है । विद्यार्थी गुरु को प्रणाम करता है । बालक श्रेष्ठ मानव बने । बालक पट्टी या कॉपी पर लिखता है, तो उस पर अक्षत छुड़वाकर बालक को तिलक लगाकर आशीर्वाद देते हैं । बालक श्रेष्ठ लोकसेवी व नागरिक बने, यही कामना की जाती है ।
11. उपनयन संस्कार: यज्ञोपवीत, अर्थात उपनयन संस्कार दूसरा जन्म है । इस संस्कार में बालक को वैदिक मन्त्रोच्चारों के बीच विधि-विधान द्वारा तीन बंटे हुए धागों की पतली डोरी धारण करवाई जाती है । इसमें नौ धागे, नौ गुणों (विवेक, पवित्रता, बलिष्ठता, शान्ति, साहस, स्थिरता, धैर्य, कर्तव्य, समृद्धि) प्रतीक माने जाते हैं । यज्ञोपवीतधारी इसे मन्त्रोच्चार के साथ कन्धों पर धारण करते हैं और श्रेष्ठ कार्यो का संकल्प लेते हैं । भारतीय संस्कृति में लिंग, जाति, वर्ण आदि किसी भी प्रकार का भेदभाव किये बिना यज्ञोपवीत कराने की बात कही गयी है । यज्ञोपवीत व शिखा के बिना किसी भी प्रकार का धार्मिक अनुष्ठान पूर्ण नहीं होता है ।
12. वेदारम्भ: यज्ञोपवीत संस्कार के साथ प्राचीनकाल में वेदारम्भ की शिक्षा प्रारम्भ होती थी । वेद जीवन विकास, जीवन एवं परिष्कार के महत्त्व को दर्शाते हैं । वेदों की शिक्षा प्रारम्भ करने से पूर्व बालक श्रद्धापूर्वक गुरा का पूजन करता है । इसके बाद उससे भिक्षा मांगने की क्रिया पूर्ण करवायी जाती है ।
10. विद्यारम्भ संस्कार: यह आयु के पांचवें वर्ष में तब सम्पन्न कराया जाता है, जब बालक शिक्षा ग्रहण करने के योग्य हो जाता है । शिक्षा मात्र शिक्षा न रहकर विद्या बने, इसीलिए गणेश व लक्ष्मी के पूजन के बाद विद्या तथा ज्ञानवर्द्धन करने वाले इस संस्कार को सरस्वती का नमन कर पूर्ण किया जाता है । शिक्षा के उपकरण दवात, कलम, कॉपी, पट्टिका को वेद मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर पूजन किया जाता है । इस क्रिया को परमार्थ प्रयोजन के रूप में किया जाता है ।
13. केशान्त संस्कार: सिर के बाल जब उतारे जाते हैं, तब यह सरकार होता है । बालक के केश किसी देवस्थान में उतारे जाते हैं । दूसरे या तीसरे वर्ष में बाल उतारने के बाद शिखाबन्धन होता है ।
14. समावर्तन संस्कार: शिक्षा की समाप्ति पर किया जाने वाला यह सरकार है । यह संस्कार पचीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला शिक्षार्थी गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर पूर्ण करता है और अपने परिवार, समाज तथा -देश के प्रति सभी कर्तव्यों को पूर्ण करता है ।
15. विवाह संस्कार: हिन्दुओं की सामाजिक व्यवस्था का एक प्रमुख सरकार है: विवाह संस्कार । विवाह को हमारी संस्कृति में शरीर का ही नहीं, मन तथा आत्मा का पवित्र बन्धन माना जाता है । इस संस्कार के पूर्ण होने पर पति-पत्नी एकसूत्र में बंध जाते हैं तथा एक-दूसरे के सुख-दुःख में समान रूप से सहभागी होकर जीवनपर्यन्त सभी प्रकार के धार्मिक, सामाजिक कर्तव्यों को पूर्ण करने की शपथ लेते है ।
वर-वधू अग्नि के चारों तरफ सप्त परिक्रमा लेते हैं । सप्तपदी के बाद अभिभावकगण कन्यादान करते हैं । पाणिग्रहण, ग्रन्धिबन्धन, सप्तपदी, शिलारोहण, लाजाहोम, शपथ, आश्वासन मांग भरना, (सुमंगली) यज्ञ आहुति जैसे धार्मिक विधि-विधान सम्पन्न होते हैं । वधू पक्ष वाले कन्या की विदाई करते हैं ।
16 अंत्येष्टि संस्कार: मानव शरीर इस संसार की सबसे बड़ी विभूति है । मृत्यु इसकी चिरन्तन गति है । व्यक्ति जब मृत्यु को प्राप्त होता है, तो उसकी आत्मा की शान्ति व वातावरण की शुद्धि के लिए हमारी भारतीय संस्कृति में कुछ विशेष संस्कार किये जाते हैं । उसे अंत्येष्टि संस्कार कहते हैं । मृतक को इन संस्कारों द्वारा सम्मानपूर्वक विदाई दी जाती है । सर्वप्रथम मृत व्यक्ति को स्नान कराया जाता है । उसके मस्तक तथा शरीर पर चन्दन का लेप लगाया जाता है । श्मशान भूमि को गोबर मिट्टी से पवित्र किया जाता है । यज्ञ कुण्ड बनाया जाता है । मृतक शरीर की अंत्येष्टि हेतु वट, पीपल, आम, गूलर, ढाक, शमी, चन्दन, अगर इत्यादि पवित्र काष्ठों की लकड़िया एकत्रित की जाती हैं । मन्त्रोच्चार के साथ घी आदि से पांच पूर्णाहूतियां दी जाती हैं । शव का दाह संस्कार करके अंत्येष्टि के साथ पिण्डदान किया जाता है, जो जीवात्मा की शान्ति के लिए होता है । कपालक्रिया के बाद अस्थि, अवशेष एकत्र कर उसे कलश के लाल वस्त्र में लपेटकर किसी पवित्र स्थान गे धार्मिक विधि-विधान से विसर्जित कर दिया जाता है । शरीर समाप्त होने के तेरहवें दिन मरणोत्तर संस्कार किया जाता है । यह शोक, मोह की विदाई का विधिवत आयोजन है । मृत्यु के कारण घर में शोक, वियोग का वातावरण रहता है । इन तेरह दिनों में शोक-सन्ताप को विदाई दे देनी चाहिए । मृत्योपरान्त घर की पवित्रता के लिए लिपाई-पुताई की जाती है । पिण्डदान के साथ तर्पण किया जाता है, फिर श्रद्धापूर्वक उसका श्राद्ध किया जाता है । इसमें स्वर्गीय पितरों के प्रति भी श्रद्धाभाव प्रकट कर भावी सन्ततियों पर पितरों की कृपा एवं आशीर्वाद मांगा जाता है । हिन्दुओं में वार्षिक श्राद्ध करने की परम्परा है । अत: दिवंगत जीवात्मा की सदगति के लिए अंत्येष्टि संस्कार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
4. उपसंहार: भारतीय संस्कृति में, विशेषत: हिन्दुओं में किये जाने वाले इन संस्कारों का आज भी विशेष महत्त्व है । यद्यपि आज की व्यस्ततम जिन्दगी में इन संस्कारों का पूर्ण विधि-विधान से पालन नहीं हो पाता, तथापि हिन्दू कुछ बदले हुए स्वरूपों में इसका पालन करते है । वस्तुत: हिन्दू धर्म के ये सरकार मानव व्यक्ति के श्रेष्ठ सन्तुलित व्यक्तित्व के निर्माण में काफी महत्त्वपूर्ण भूमिका निबाहते हैं । आधुनिक सभ्यता के प्रभाव में इन संस्कारों का स्वरूप अवश्य ही बदला है, किन्तु ये संस्कार अपने आदर्शो और श्रेष्ठ मानवीय मूल्यों एवं विश्वास के कारण आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने कि प्राचीन भारतीय संस्कृति में थे । ये संस्कार चरित्र निर्माण के प्रमुख आधार कहे जा सकते हैं । भारतीय संस्कार यह बताते हैं कि जीवन मृत्यु के साथ समाप्त नहीं हो जाता ।